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मिसिर कविराय की कुण्डलिया




मिसिर कविराय की 

                कुण्डलिया


मानुष हो कर जो नहीं, करता है

उपकार।

ऐसे अधम पिशाच को,बार- बार धिक्कार।।

बार-बार धिक्कार, समझ उसको अपकारी।

नहिं कदापि वह जीव,हुआ करता हितकारी।।

कहें मिसिर कविराय,मनुज रूपी वनमानुष।

रखता तुच्छ विचार, नहीं है उत्तम मानुष।।





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2 Comments

Sachin dev

31-Dec-2022 06:09 PM

Nice

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बेहतरीन

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